भारत के राष्ट्रपति, श्री प्रणब मुखर्जी ने आज (1 दिसंबर, 2015) साबरमती आश्रम, अहमदाबाद, गुजरात के एक नए अभिलेखागार और अनुसंधान केंद्र का उद्घाटन किया।
राष्ट्रपति ने कहा कि हम ऐसे समय में रह रहे हैं जब दुनिया को गांधीजी की पहले से अधिक आवश्यकता है। उनके शब्द और संदेश को फैलाने का हमारा दायित्व पहले से कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण हो गया है। गांधीजी हमारे राष्ट्रपिता ही नहीं हैं बल्कि हमारे राष्ट्र के निर्माता भी हैं। उन्होंने हमारे कार्यों को दिशा दिखाने का नैतिक पैमाना प्रदान किया, एक ऐसा पैमाना जिसके द्वारा हमारी परख होती है। गांधीजी ने भारत को एक ऐसे समावेशी राष्ट्र के रूप में देखा जहां हमारी जनसंख्या का प्रत्येक तबका समानतापूर्वक रहता हो और समान अवसर का प्रयोग करता हो। उन्होंने भारत को एक ऐसे देश के रूप में देखा जो अपनी जीवंत विविधता तथा बहुलवाद के प्रति समर्पण पर गर्व और निरंतर उसे मजबूत करता रहेगा। गांधीजी चाहते थे कि हमारे देशवासी निरंतर विचार और कार्य का सदैव विस्तार करते हुए संगठित होकर आगे बढ़ें। और सबसे बढ़कर, वह नहीं चाहते थे कि उनके जीवन और संदेश के कार्य को केवल अनुष्ठान में बदल दिया जाए।
राष्ट्रपति ने कहा कि गांधीजी ने हमें नैतिक रूप से नवान्वेषी बनना सिखाया। यदि भारत नैतिक नवान्वेषण की ओर अग्रसर होता है तो हमारी प्रचुर रचनात्मकता के अन्य सभी पहलू गांधी जी द्वारा हमें प्रदत्त प्रत्येक आंख से आंसू पोंछने वाले जंतर को स्वत: पूरा कर देंगे। गांधीजी की विरासत का असली निचोड़ तथा इसका निरंतर विस्तार उनकी इस सीख में छिपा हुआ है कि हमें सभी कार्यों के दौरान अंतिम व्यक्ति को ध्यान में रखना चाहिए। भारत में अंतिम व्यक्ति प्राय: महिला, दलित या कोई आदिवासी है। हमें निरंतर स्वयं से पूछना चाहिए, क्या हमारे कार्य का उनके लिए कोई अर्थ है? जिस ‘नियति से मिलन’ के बारे में पंडित नेहरू ने कहा वह यही दायित्व था। हमें निर्धन से निर्धनतम व्यक्ति को सशक्त बनाना चाहिए। प्रत्येक को सामूहिक कल्याण और सम्पत्ति के ट्रस्टी के तौर पर कार्य करना चाहिए। मनुष्य होने का मूल तत्त्व एक दूसरे के प्रति हमारा विश्वास है। अपने चारों ओर हम पर्यावरण की जो क्षति देखते हैं, वह हमें ट्रस्टीशिप की आवश्यकता की ओर ध्यान दिलाती है।
राष्ट्रपति ने कहा कि हम प्रतिदिन अपने चारों तरफ अभूतपूर्व हिंसा देखते हैं। इस हिंसा के मूल में अज्ञानता, भय और अविश्वास है। इस निरंतर बढ़ रही हिंसा से मुकाबला करने के नए तरीके खोजते हुए हमें अहिंसा, संवाद और तर्क को नहीं भूलना चाहिए। एक अहिंसक समाज ही सभी वर्गों के लोगों, विशेषकर हमारी लोकतांत्रिक प्रक्रिया के उपेक्षित और अभावग्रस्त लोगों की भागीदारी सुनिश्चित कर सकता है।
राष्ट्रपति ने कहा कि भारत की असली गंदगी हमारी सड़कों पर नहीं बल्कि हमारे मन में है तथा समाज को ‘उनका’ और ‘हमारा’, ‘पवित्र’ और ‘अपवित्र’ में बांटने वाले विचारों को छोड़ने की हमारी अनिच्छा में है। हमें सराहनीय और स्वागत योग्य स्वच्छ भारत मिशन को सफल बनाना चाहिए। तथापि हमें मन को स्वच्छ बनाने और सभी पहलुओं सहित गांधीजी की संकल्पना को पूरा करने के व्यापक और तीव्र प्रयास की शुरुआत के तौर पर देखना चाहिए। गांधीजी हमें बताते थे और डॉ. बाबासाहेब अंबेडकर उनसे सहमत थे कि जब तक अस्पृश्यता जारी रहेगी, जब तक मैला ढोने की अमानवीय प्रथा चलती रहेगी, हम वास्तविक स्वच्छ भारत नहीं बना सकते। गांधीजी सभी प्रकार के मानव श्रम की गरिमा पर बल दिया करते थे और उन्होंने एक मेहतर बनने की इच्छा व्यक्त की थी। हमें याद रखना चाहिए कि गांधीजी ने हमारे मन और हमारे गांवों का मेहतर बनने की आकांक्षा की थी।
राष्ट्रपति ने कहा कि जो अपने विश्वास पर कायम हैं, अपनी आस्था पर दृढ़ हैं और अपनी संस्कृति में रचे बसे हैं, वहीं एक खुले समाज में रहने की आशा कर सकते हैं। यदि हम स्वयं को सीमित कर लेंगे, दूसरे प्रभावों से बचने का प्रयास करेंगे तो इससे जाहिर होगा है कि हम ऐसे घर में रहना चाहते हैं जो ताजी हवा से वंचित हैं। समसामयिक भारत में हृदयकुंज की शिक्षा यह है कि हमें एक ऐसा मुक्त समाज बनाना चाहिए जो समान भाव से विविध विचारों और सोच से जुड़ने के लिए तैयार हो।
राष्ट्रपति ने कहा कि गांधीजी निर्बाध ज्ञान के समर्थक थे। गांधीजी के जीवन को खंडों और निश्चित रूप में टुकड़ों में नहीं बल्कि समग्र रूप से समझना होगा। करुणा और समानुभूति की हमारी शक्ति सभ्यता की वास्तविक नींव है। गांधीजी सभ्यता के लिए एक विशेष शब्द ‘सुधर’ का प्रयोग किया करते थे जिसके बारे में वह कहा करते थे कि यह सुपथ या सही पथ ही नहीं बल्कि यह मानव सभ्यता को एकजुट रखता है। आइए संगठित होने और ऐसे भारत का निर्माण करने की शपथ लें जो इस सुधर को सच्चे अर्थों में व्यक्त करें।
यह विज्ञप्ति 1145 बजे जारी की गई।